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अ॒भ्याद॑धामि स॒मिध॒मग्ने॑ व्रतपते॒ त्वयि॑। व्र॒तं च॑ श्र॒द्धां चोपै॑मी॒न्धे त्वा॑ दीक्षि॒तोऽअ॒हम् ॥२४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒भि। आ। द॒धा॒मि॒। स॒मिध॒मिति॑ स॒म्ऽइध॑म्। अग्ने॑। व्र॒त॒प॒त॒ इति॑ व्रतऽपते। त्वयि॑। व्र॒तम्। च॒। श्र॒द्धाम्। च॒। उप॑। ए॒मि॒। इ॒न्धे। त्वा॒। दी॒क्षि॒तः। अ॒हम् ॥२४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:20» मन्त्र:24


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (व्रतपते) सत्यभाषणादि कर्मों के पालन करनेहारे (अग्ने) स्वप्रकाशस्वरूप जगदीश्वर ! (त्वयि) तुझमें स्थिर हो के (अहम्) मैं (समिधम्) अग्नि में समिधा के समान ध्यान को (अभ्यादधामि) धारण करता हूँ, जिससे (व्रतम्) सत्यभाषणादि व्यवहार (च) और (श्रद्धाम्) सत्य के धारण करनेवाले नियम को (च) भी (उपैमि) प्राप्त होता हूँ, (दीक्षितः) ब्रह्मचर्य्यादि दीक्षा को प्राप्त होकर विद्या को प्राप्त हुआ मैं (त्वा) तुझे (इन्धे) प्रकाशित करता हूँ ॥२४ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य परमेश्वर के आज्ञा दिये हुए सत्यभाषणादि नियमों को धारण करते हैं, वे अतुल श्रद्धा को प्राप्त होकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि को करने में समर्थ होते हैं ॥२४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(अभि) (आ) (दधामि) (समिधम्) समिधमिव ध्यानम् (अग्ने) स्वप्रकाशस्वरूप जगदीश्वर (व्रतपते) सत्यभाषणादीनां व्रतानां कर्मणां वा पालक। व्रतमिति कर्मनामसु पठितम् ॥ (निघं०२.१) (त्वयि) (व्रतम्) सत्यभाषणादिकं कर्म (च) (श्रद्धाम्) सत्यधारिकां क्रियाम् (च) (उप) (एमि) प्राप्नोमि (इन्धे) प्रकाशयामि (त्वा) त्वाम् (दीक्षितः) ब्रह्मचर्यादिदीक्षां प्राप्य जातविद्यः (अहम्) ॥२४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे व्रतपतेऽग्ने ! त्वयि स्थिरीभूयाहं समिधमिव ध्यानमभ्यादधामि, यतो व्रतं च श्रद्धां चोपैमि दीक्षितः संस्त्वा त्वामिन्धे ॥२४ ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्याः परमेश्वराज्ञप्तानि सत्यभाषणादीनि व्रतानि धरन्ति, तेऽतुलां श्रद्धां प्राप्य धर्माऽर्थकाम-मोक्षसिद्धिं कर्तुं शक्नुवन्ति ॥२४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे परमेश्वरी आज्ञेप्रमाणे सत्य भाषण इत्यादी नियमांचे पालन करतात ते सर्वांच्या श्रद्धेस पात्र ठरतात व धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष यांची सिद्धी करण्यास समर्थ ठरतात.